Tej Pratap Yadav ने RJD में 'जयचंद' की चेतावनी दी, पांच दलों के साथ नया मोर्चा—बिहार चुनाव से पहले सियासत गर्म

Tej Pratap Yadav ने RJD में 'जयचंद' की चेतावनी दी, पांच दलों के साथ नया मोर्चा—बिहार चुनाव से पहले सियासत गर्म
Anuj Kumar 20 अगस्त 2025 0

परिवार के भीतर तकरार, पार्टी पर निशाना और नया सियासी मोर्चा

बिहार चुनाव के ठीक पहले सियासत में सबसे तेज हमला घर के भीतर से आया है। आरजेडी से निष्कासित पूर्व मंत्री और मौजूदा निर्दलीय विधायक Tej Pratap Yadav ने छोटे भाई तेजस्वी यादव को खुली चेतावनी दी—‘जयचंदों से बचो, वरना नतीजे बहुत खराब होंगे।’ यह संदेश उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर दिया और दावा किया कि ‘साजिशकर्ता’ उनकी राजनीतिक पारी खत्म करना चाहते हैं।

तेज प्रताप को मई 2025 में उनके पिता और आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद ने पार्टी से निकाल दिया था। उसके दो महीने बाद, 5 अगस्त 2025 को उन्होंने पटना के मौर्य होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पांच क्षेत्रीय दलों के साथ नया मोर्चा खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि यह गठबंधन बिहार में ‘सामाजिक न्याय, सामाजिक अधिकार और व्यापक बदलाव’ के एजेंडा पर चलेगा—डॉ. लोहिया, कर्पूरी ठाकुर और जयप्रकाश नारायण के विचारों को दिशा मानकर।

नए मोर्चे में ये पांच दल शामिल हैं:

  • विकास वंचित इंसान पार्टी (VVIP)
  • भोजपुरिया जन मोर्चा (BJM)
  • प्रगतिशील जनता पार्टी (PJP)
  • वाजिब अधिकार पार्टी (WAP)
  • संयुक्त किसान विकास पार्टी

तेज प्रताप ने साफ किया कि बीजेपी और जेडीयू से कोई तालमेल नहीं होगा। उल्टा उन्होंने आरजेडी और कांग्रेस को अपने गठबंधन में आने का न्योता दे दिया—मतलब, परिवार और पार्टी से अलग खड़े होकर भी वे विपक्षी खेमे में ही नई जगह तलाश रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस सांसद राहुल गांधी और तेजस्वी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ पर भी चोट की—इसे ‘सतही’ बताते हुए कहा कि असली मुद्दे शिक्षा, स्वास्थ्य और बेरोजगारी हैं, जिन्हें यात्रा से ज्यादा ठोस रोडमैप चाहिए।

राजनीतिक संदेश भी साफ है—तेज प्रताप महुआ सीट से चुनाव लड़ेंगे। 2015 में वे यहां से जीते थे, 2020 में आरजेडी ने उन्हें हसनपुर भेजा था। अब पुराने गढ़ में वापसी की तैयारी है और इसे वे प्रतिष्ठा की लड़ाई की तरह पेश कर रहे हैं। साथ ही, उन्होंने कहा कि वे राज्यभर में सार्वजनिक संवाद करेंगे, सोशल मीडिया के जरिए अभियान चलाएंगे और ‘परिवार तथा खुद के खिलाफ सभी साजिशों का खुलासा’ करेंगे।

मोर्चे की प्राथमिकताएं उन्होंने तीन बिंदुओं में बांधी—स्कूलों और अस्पतालों की हालत सुधारना, नौजवानों के लिए नौकरी और कौशल, तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ताकत देना। उनके मुताबिक, बिना इन पर डिलीवरी के चुनावी रैलियां और यात्राएं ‘फोटो-ऑप’ बनकर रह जाती हैं।

बिहार की बिसात: वोट कटेगा, समीकरण बदलेंगे या नई जगह बनेगी?

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सवाल यहीं से शुरू होता है—इस कदम का असर क्या होगा? बिहार की राजनीति जातीय-सामाजिक समीकरणों पर चलती है। आरजेडी की परंपरागत ताकत यादव-मुस्लिम वोट बैंक रहा है। परिवार के भीतर दरार अगर सार्वजनिक राजनीति में उतरती है, तो कुछ इलाकों में वोट-बंटवारे का जोखिम बढ़ता है। कई सीटों पर बहुत कम अंतर से नतीजे तय होते रहे हैं; ऐसे में थोड़ी सी नाराजगी भी तस्वीर बदल सकती है।

यह पहली बार नहीं कि बिहार में ‘परिवार’ या ‘अपनों’ के बीच फूट से चुनावी असर बना हो। 2020 के विधानसभा चुनाव के समय लोक जनशक्ति पार्टी में हुए तनाव का असर आपने देखा—सीधे-सीधे जीत-हार का ग्राफ न सही, पर सीट-दर-सीट समीकरण हिले थे। इसी तरह, छोटे क्षेत्रीय दलों का उभार अक्सर वोट का सूक्ष्म कटाव करता है और बड़े गठबंधनों के अंकगणित को चुनौती देता है। तेज प्रताप का नया मोर्चा उसी जगह पर दांव लगा रहा है—जहां 2-3 प्रतिशत की खिसकन भी मायने रखती है।

राजनीतिक रूप से तेज प्रताप दो फ्रंट पर खेल रहे हैं। एक, वे ‘जयचंद’ वाली चेतावनी देकर आरजेडी की अंदरूनी राजनीति पर दबाव बना रहे हैं। दो, वे वैकल्पिक मंच बनाकर खुद के लिए स्पेस खोद रहे हैं—ताकि चुनाव के बाद किसी भी संभावित गठबंधन में ‘बातचीत की कुर्सी’ उनके पास रहे। यह रणनीति बिहार की बहु-दलीय राजनीति में अक्सर काम आती है: पहले अलग गुट बनाओ, फिर सीटों पर प्रभाव दिखाओ, और परिणाम के पहले या बाद में बड़ी डील करो।

महुआ की लड़ाई अलग से दिलचस्प होगी। यह सिर्फ एक सीट नहीं, संदेश है—‘मैं अपने पुराने किले में फिर खड़ा हूं।’ अगर वे वहां दमदार कैंपेन खड़ा करते हैं, तो यह मोर्चे के लिए चेहरा और ऊर्जा दोनों देगा। दूसरी तरफ, आरजेडी के लिए यह सीट मनोवैज्ञानिक तौर पर अहम बनेगी, क्योंकि इसे बचाना या जीतना ‘नेरेटिव’ तय करेगा—कौन मजबूत, कौन कमजोर।

अब संगठनात्मक काम की बारी है, जहां छोटे मोर्चे अक्सर लड़खड़ा जाते हैं। चुनाव आयोग से गठबंधन का पंजीकरण/सूचना, साझा कार्यक्रम-पत्र, प्रतीक का मुद्दा (साझा चिन्ह या अलग-अलग), और सबसे मुश्किल—सीट बंटवारा। पांच पार्टियां हैं, सबकी अपनी प्राथमिकताएं होंगी। अगर सीटों का फॉर्मूला समय रहते तय नहीं हुआ, तो जमीनी कार्यकर्ता भ्रम में पड़ते हैं। दूसरी तरफ, जल्दी सहमति बन गई तो उम्मीदवारों को क्षेत्र में जड़ें जमाने का समय मिल जाएगा—जो बूथ-मैनेजमेंट से लेकर स्थानीय नारों तक सब पर फर्क डालता है।

तेज प्रताप ‘यात्राओं’ के खिलाफ एजेंडा-आधारित राजनीति की बात कर रहे हैं। मतलब, ग्लैमर से ज्यादा गवर्नेंस की बहस। पर इसका उलट भी सही है—बिहार की राजनीति में प्रतीक, भीड़ और सड़क पर दिखना भी जरूरी है। इसलिए उनका ‘सोशल मीडिया-प्रधान’ अभियान तभी असर करेगा जब गांव-गांव तक बैठकों, चौपालों और संगठन के माइक्रो-नेटवर्क से जोड़ा जाए। खासकर युवा मतदाता, जो नौकरी और किफायती कौशल-प्रशिक्षण जैसे मुद्दों पर बेबाक हैं, उन्हें ठोस प्रस्ताव दिखाने होंगे—जैसे, जिला-स्तर पर कौशल केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की उपलब्धता, और सरकारी स्कूलों में सीखने के नतीजों को मापने का सादा सिस्टम।

तेजस्वी के लिए यह पल दोहरी चुनौती है—एक तरफ गठबंधन को सहेजना, दूसरी तरफ पारिवारिक-राजनीतिक विवाद को शांत रखना। तेज प्रताप का खुला न्योता (आरजेडी-कांग्रेस को मोर्चे में आने का) इसीलिए दिलचस्प है—यह राजनीतिक दबाव भी है और ‘दरवाजा खुला है’ वाला संकेत भी। अगर बातचीत आगे बढ़ती है, तो सीटों और भूमिकाओं पर सटीक समझ बनानी होगी; नहीं तो मैदान में सीधी टक्कर कई जगह दिखेगी।

अगले हफ्तों में देखने वाली बातें:

  • नए मोर्चे का औपचारिक नाम, साझा एजेंडा और चेहरा किसे बनाया जाता है?
  • सीट-बंटवारे का फॉर्मूला—किस क्षेत्र में किस दल का दावा मजबूत माना जाता है?
  • महुआ में उम्मीदवार चयन और संदेश—स्थानीय मुद्दों का पैकेज क्या होगा?
  • आरजेडी और कांग्रेस की रणनीतिक प्रतिक्रिया—न्योते पर संवाद होता है या मुक़ाबला तय माना जाए?

फिलहाल इतना तय है कि बिहार में चुनावी कहानी अब दो-तीन बड़े गठबंधनों तक सीमित नहीं रहेगी। एक नया किरदार एंट्री ले चुका है, जो परिवार से जुड़ा भी है और उससे अलग भी। और यही बात इस चुनाव को और अनिश्चित, और इसलिए और दिलचस्प बनाती है।