
पंडालों में छाए सामाजिक संदेश
जब कोलकाता की गलियों में झूम उठती है दुर्गा पूजा, तो बहुत से लोग इसे सिर्फ धार्मिक माहौल समझते हैं। 2025 की इस बार, पंडालों ने अपने डिज़ाइन में ऐसा बोझ उठाया है जो कई सालों से अनसुना रहा – श्रमिकों की मेहनत, सेना का बलिदान और पर्यावरण की चिंता। यही कारण है कि इस साल की कई पंडालें दर्शकों को केवल रंग‑रूप नहीं, बल्कि एक कहानी सुनाती हैं।
सबसे प्रमुख थीम में से एक है कोलकाता दुर्गा पूजा 2025 के पंडालों में प्रवासी श्रमिकों को सम्मान देना। वे वही हैं जो अक्सर शहर से दूर रह कर इन पंडालों की धातु‑कंक्रीट की बनावट तैयार करते हैं। कुछ पंडालों ने इस बात को बड़े पटाखे की तरह नहीं, बल्कि सादे बैनर और फोटोग्राफ़ में उजागर किया है – जैसे कि श्रमिकों की आँखों में चमकते सपने और उनकी थकान की कहानियाँ। इन कहानी‑परक टुकड़ों में दिखाया गया है कि कैसे प्रवासी श्रमिकों की परिश्रम ने कोलकाता के इस महोत्सव को संभव बनाया है।
दूसरी ओर, ‘ऑपरेशन सिंधूर’ नामक थीम ने भारत की सेना को श्रद्धांजलि दी। संतोष मिश्रा स्क़्वायर, यंग बॉयज क्लब और कई अन्य पंडालों ने सैनिकों की बहादुरी को दिखाने के लिए लाल‑सिन्धूर रंग के जाल बिछाए। कुछ पंडालों ने उन आतंकियों के शिकार हुए नागरिकों की कहानियों को भी झलकाया, जिससे दर्शकों को याद दिलाया गया कि शांति कितनी नाज़ुक होती है।
पर्यावरण प्रेमियों ने भी अपनी आवाज़ उठाई। श्यामनगर के बैनर्जीपारा पुञा मण्डल ने वाराणसी के घाटों को दोबारा बनाकर नदी‑प्रदूषण के मुद्दे को उजागर किया। जल के किनारे पर स्थापित धुंधली रोशनी और कचरे के ढेर ने दर्शकों को यह पूछने पर मजबूर कर दिया – क्या हम अपनी नदियों को फिर से स्वच्छ बना पाएंगे? यही नहीं, कुछ पंडालों ने झील‑के‑काठ पर स्थापित कूड़े‑कटोरे को कला के रूप में इस्तेमाल किया, जिससे पर्यावरण की रक्षा के लिए छोटे‑छोटे कदमों की जरूरत पर बल दिया गया।
इतिहास के पन्नों को भी इस बार नहीं भुलाया गया। सामाजसेवी संघ ने 16 अगस्त 1946 के communal harmony को याद किया, जहाँ स्थानीय लोग उग्र तनाव के बीच एकजुट थे। उनके पंडाल में फ्लेक्स‑बोर्ड, मॉडल‑हाउस और हाथ‑से‑बनाए बैनर से दिखाया गया कि कैसे असहिष्णुता के समय में भी एकता की ताकत बनी रह सकती है।
उत्सव का नया रूप: कला, पर्यावरण और इतिहास
पारम्परिक रूप से कोलकाता की दुर्गा पूजा को शिल्प‑कौशल और आध्यात्मिक भक्ति के घनीभूत मिश्रण के रूप में देखा जाता है। पर आजकल इस उत्सव ने यूनिस्को के मान्यताप्राप्त ‘इंटेंसल एंट्री’ की तरह कला, सामाजिक चेतना और पर्यावरणीय जागरूकता को एक साथ जोड़ा है।
मुडियाली दुर्गा उत्सव समिति ने अपनी पारम्परिक अनुष्ठानों को बरकरार रखे हुए, नई कलात्मक प्रयोगों को भी अपनाया है। वहीं, काशी बोस लेन ने ‘सादगी’ की थीम के तहत लीला मज़ुमदार की लिखावट‑प्रेरित बैनर लगाए, जिससे बच्चे‑बच्चे भी सादगी की खूबसूरती को समझ पाए। इस पंडाल की अनूठी बात यह थी कि हर कोने पर छोटा‑छोटा खुला मंच था, जहाँ लोग अपनी कहानियां साझा कर सकते थे।
हथीबागन यूनिवर्सल ने कोलकाता की गंगा घाटों को सिमुलेट किया। नदी‑किनारा, नाव‑डॉक और घाटों की धुंधली रोशनी ने लोगों को वही महसूस कराया, जो 17वीं सदी के बैरोक स्थापत्य में मिलती है। यह पुनर्निर्माण न केवल आध्यात्मिकता को दिखाता है, बल्कि आज के समय में जल‑संरक्षण की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है।
अर्जुनपुर ‘अमर साबै’ पंडाल ने ‘मुखमुखी’ नामक इंटरेक्टिव इंस्टॉल प्रस्तुत किया, जहाँ स्टेनलेस‑स्टील के सैकड़ों फ़्रेम और शीट्स में दर्शकों के प्रतिबिंब देखे जा सकते थे। यह प्रयोग आगंतुकों को स्वयं की झलकियों में आत्म‑निरीक्षण करने का अवसर देता है – एक ही क्षण में कला और आत्म‑संवाद का संगम।
बाजार‐से‑बाहरी दर्शकों को भी कगार पर ले जाने के लिए जयपुर में सुदूर‑बन के जंगलों को तीन‑लेयर ज़ोन में पुनः निर्मित किया गया। घने घास, ऊँची बांस और झाड़ी‑जैसे संरचनाओं ने जंगल की श्वास को महसूस करवाया, जहाँ देवी दुर्गा और उनके बामन अपने मूल स्वरूप में बैठी थीं। इस प्रकार की भव्यता ने दर्शकों को प्राकृतिक संरक्षण की नई दहलीज पर पहुंचा दिया।
सभी पंडालों में स्पष्ट था – दुर्गा पूजा अब केवल देवी की पूजा नहीं, बल्कि सामाजिक मुद्दों, इतिहास और भविष्य की दिशा पर चर्चा का मंच बन गई है। चाहे वह श्रमिकों का सम्मान हो, सेना को श्रद्धांजलि, पर्यावरण की सुरक्षा या इतिहास की सीख – हर थीम ने एक आवाज़ उठायी है, जो कई लोगों को सोचने पर मजबूर करती है। यही कारण है कि कोलकाता की इस साल की दुर्गा पूजा को ‘व्यापक‑सांस्कृतिक’ कहा जा सकता है, जहाँ कला, धर्म और सामाजिक चेतना का एक अभूतपूर्व संगम हुआ है।